21 फीसदी बच्चे जन्म से ही कमजोर, 31% का वजन लंबाई के अनुसार नहीं
बांसवाड़ा में कुपोषण और एनिमिया के कारण मासूम बच्चों की जिंदगी खतरे में है। उतना ही खतरा नवजातों के जन्म के दौरान बना रहता है। हावर्ड यूनिवर्सिटी और टाटा ट्रस्ट के सर्वे में जिले की लॉ बर्थ वेट रेट का भी खुलासा किया है, जिसमें 21.6 फीसदी बच्चों का जन्म के दौरान ही कम वजन होता है। स्पेशल नियो नेटल केयर यूनिट में विशेष सार संभाल के बावजूद कई बच्चों की जान नहीं बच पाती। यहीं कारण है कि डेढ़ साल पहले जिले के सबसे बड़े महात्मा गांधी अस्पताल में दो साल पहले दो माह के भीतर 90 नवजातों की मौत हुई थी। हालांकि इस मौत में अस्पताल में असुविधाएं भी एक कारण मानी गई है। एलबीडब्ल्यू बोर्न बेबी की स्थिति में बांसवाड़ा देश की 543 लोकसभा क्षेत्रों में 64वें नंबर पर है। नौ महीने पर पैदा होने वाले नवजात का औसत वजन लगभग 2500 ग्राम और 2900 ग्राम (2.9 कि.ग्रा.) के बीच होता है। डब्ल्यूएचओ के मुताबिक अनुसार, 2500 ग्राम (2.5 कि.ग्रा.) से कम वजन वाला शिशु कम जन्म वजन शिशु कहलाता है। भले ही वह गर्भावस्था के किसी भी चरण पर पैदा हुआ हो। ये बच्चे या तो समय से पहले जन्म लेने के कारण कमजोर होते है या फिर पूरे समय पर होने के बावजूद कुपोषण/बीमारी की वजह से कमजोर रहते है। दूसरा कारण यह भी रहता है कि गर्भावस्था के दौरान पर्याप्त पोषण नहीं लिया हो तो इस स्थिति में कम वजन के बच्चे पैदा होते हैं।
चिकित्सा विभाग ने वेस्टिंग श्रेणी में माना : जिले में वेस्टिंग श्रेणी के बच्चों का आंकड़ा भी एनिमिया के बाद चिंता कारण है। इसमें बच्चों का वजन उनकी हाइट की तुलना में काफी कम होता है। सर्वे की माने तो 0 से 5 साल तक के 31.7 फीसदी बच्चे वेस्टिंग श्रेणी में हैं जिनमें वजन बिल्कुल ही कम होता है और पूरी पसलियां धंसी हुई होती है। इस स्थिति में बांसवाड़ा प्रदेश में पहले स्थान पर है और देश में 12वें स्थान पर।
मुख्य वजह : सामाजिक और अशिक्षा, ज्यादातर प्रसव घर पर ही়, 9 माह तक न नियमित इलाज न ही उपचार
आदिवासी अंचल में स्वास्थ्य के इन हालातों के पीछे चिकित्सा सुविधाएं पर्याप्त नहीं होने के साथ साथ सामाजिक और अशिक्षा भी एक प्रमुख वजह है। जहां आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में गर्भावस्था के दौरान खुराक का ध्यान नहीं रखा जाता और प्रसव के दौरान पारंपरिक तौर पर घरों पर ही प्रसव करा दिया जाता है। 9 माह तक नियमित इलाज और उपचार नहीं कराने के कारण प्रसवकाल में स्थिति बिगड़ जाती हैं।
जिले में 63 विशेषज्ञ, 39 जनरल डॉक्टरों के पद खाली
बांसवाड़ा में जिला अस्पताल एमजीएच सहित 21 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र और 54 पीएचसी है। जहां हर साल करीब 16 लाख मरीज इलाज के लिए आते हैं। जिनमें सवा लाख के करीब मरीजों को भर्ती तक करना पड़ता है। लेकिन इसके विपरित जिले में 90 डॉक्टरों के पद रिक्त है। इसमें कनिष्ठ विशेषज्ञ के 63, एसएमओ के 18, एमओ के 21 के पद खाली है। गायनिक डॉक्टर की बात करें तो एमजी को छोड़ परतापुर में महज एक मात्र गायनिक डॉक्टर कार्यरत है। शेष जिले में एक भी विशेषज्ञ नहीं है। वहीं शिशुरोग विशेषज्ञ भी महज कुशलगढ़ और बागीदौरा में कार्यरत हैं।